Thursday, 23 August 2012

मेरे और तुम्हारे बीच
रात की एक सरहद थी
रात की मेड़ों पर
हम रोज मिला करते थे
सुबह नहीं होने की
दोनो ही दुआ करते थे
दिन के उजालों ने
जो नसें खोलकर रख दी थीं
रात की ठंडी पलकों में
वे नसें सिला करते थे
दोनो हाथ रगड़ कर तुम
चिंगारी सी बन जाती थीं
साथ साथ जलने की कसमें
ऐसे भी निभा लेते थे
झूलों, गुड़ियों की दुनिया का
रंग बड़ा धानी सा था
उठने, गिरने, लड़ने की आदत
रंग इधर पानी सा था
रात की मेड़ों पर अक्सर
दीवारें छत हो जाती थीं
रेखाएं उलट पलट आखिर
समकोणों पर मिल जाती थीं
मेरे और तुम्हारे बीच
रात की एक सरहद थी
आज सुबह ही
सूरज से छेनी लेकर
कांटों की एक बाड़ लगा दी...

मालूम हुआ
तुम रात की सरहद तोड़
सुबह के आंगन में खिलने वाली हो
क्या करता
मेरे आंगन की ईंट बहुत तपती है
और
पांव तुम्हारे रूई से भी हल्के हैं...

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